संदेश ž१९७९ बसंतोत्सव समर्थ सद् गुरू श्री राम चंद्र जी महाराज , शाहजहाँपुर (उ०प्र०)

Posted On Saturday, September 10, 2016 | 6:00:45 PM

संदेश ‍१९७९ बसंतोत्सव 
समर्थ सद् गुरू श्री राम चंद्र जी महाराज , शाहजहाँपुर (उ०प्र०)
स्थितियां ऐसा रूप ले रही हैं कि मैं समझता हूँ कि लोग पुराने तरह के कनफुक्का गुरू की हैसियत लिए बैठे हैं ।
 आकिबत (अंत को ) और भी बिगाड़ लिया  और लोगों को धोखा दिया ।
इस गुनाह ( अपराध ) की कोई तलाफी ( क्षति पूर्ति ) नहीं कोई कफारा ( प्रायश्चित ) नहीं । ईमान लेने वाले ( धर्म बिगाड़ने वाले ) की सजा होती है और जरूर होती है । इससे ज्यादा गुनाह और क्या हो सकता है कि अपनी हैसियत समझते हुए दूसरों को  गर्बिदा (प्रभवित ) करें और ऐसा साबित करें  जैसे कि  इस  युग  के  सद् गुरू   बस   यही   हैं ।
अगर यही बातें कायम रहीं , तो सोचो तो सही कितना नुकसान दूसरों का कर रहे हैं ।
जो बेचारे  ब्रह्म विद्या सीखने के लिए आ रहे हैं  और फायदा क्या हो रहा है ?
यह वही बतलाए !
 नाम किसका बदनाम हो रहा है ?  मेरा !
काम किसका हो रहा है?  उनका ! 
मैं तो अब इस नतीजे पर आया हूँ कि
" जब तक बेख्वाहिश ( इच्छा रहित ) और
लातमा ( लोभहीन)न हो जाय या करीब- करीब ऐसा हो जाय,
वह भी नहीं की स्थिति में तब तक तालीम का अख्त्यार
 ( प्रशिक्षण का अधिकार ) न देना चाहिए  ।"
घटनायें कुछ भी करा लें यह  दूसरी बात है या जमाना ऐसा करने पर मजबूर कर दे  और सवाल है । एक आदमी बहुत कुछ कर सकता है । उसके लिए इतना काम ही नहीं । वह तो प्रशिक्षण  को ऐसा दबोच कर बैठ गये गोया सब कुछ मिल गया । पीर भी बन गये और गुरू का नाम भी जिंदा कर दिया और अपने आप भी फायदे में रहें इससे बढ़कर क्या बात कि सब अपने ही काम बने और उनके लिये काफी था । अपनी ताज़ीम( प्रतीष्ठा) तो होने लगी , गुरूआई भी चलने लगी , कदर( सम्मान )  फैलने लगी । लोग वाह-वाह करने लगे । जलसा  को देख कर जी खुश होने लगा,पब्लिक आने लगी । और भला उनको क्या चाहिये था ? आये और खूब काम किया और बाद के लिए बबा? (संक्रामक रोग) फैला गये अपना नाम कायम कर गये ।................
अब खुद फरामोशी का हाल सुनो ।
 मानी तो मालूम होंगे यानी स्वयम् को भूल जाना । बस,  गुरू ही गुरू याद रहना । इसको यारों ने खुब समझाया और वाकई यह मसला उन्होने ही हल किया और करके दिखा दिया । हर काम जो करो गुरू से निस्बत दो ( समब्द्ध करो) किया और निस्बत दी । हुआ क्या ? ‌‌‌‌------
लगे वाज कहने (भाषण देने ) और लगे गुरू के नाम पर काम करने । कहो क्या यह मसला हल नहीं हो गया ?
अब जो काम करते हैं ।
गुरू का समझ लेते हैं ।
मगर रूपया आता है तो अपना समझ लेते हैं  क्योंकि उससे (रूपये से) उनको (गुरू को) वास्ता ही क्या ?
 पहली मुलाकात में जो दे दिया , वह बहुत है, उन्हें उससे ज्यादा जरूरत ही नहीं खैर कुछ हुआ तो और सब कुछ हुआ । मेरा काम भी हुआ और तुम्हारा भी हुआ और खुद फरामोशी का मसला भी निभा दिया गया अब क्या रहा?
 बताइये , मुझमें रूहानियत में क्या कमी है? कौन सी ऐसी बात है जो गुरू महाराज के नाम पर नहीं करता और नहीं की ?
ऐसे लोग तुम्हें पसंद नहीं !हमारी समझ से तो बडे. अच्छे हैं । दुनिया यही बातें तो देखती है और इससे रूहानियत का अंदाजा लगाती है। फिर जितना ज्यादा जिसमें यह बात है , उतनी ज्यादा दुनिया की निगाह में उस में  रूहानियत , फिर सूखी हड्डियों को भला कोई क्या पूछने लगा, जहाँ कुछ है ही नहीं !----
आमीन (तथास्तु)

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Posted By : vishnukumar  |  Total views : 1002