सत्य का उदय लेखक राम चंद्र अध्याय -१ धर्म

Posted On Saturday, August 20, 2016 | 4:07:07 PM


सत्य का उदय
लेखक
राम चंद्र
अध्याय -१
धर्म

आदि काल से ही मानव-जाति की चेष्टा रही है - ईश्वरोपासना, बाह्यप्रतीतियों का रहस्योद्घाटन
एवम् मूलभूत तत्व को ग्रहण करना ।यही धर्मोत्पत्ति का कारण है ।
उपासक की द्र्ष्टि स्वर्ग के अक्षय आनंद की ओर अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य विचार की
 ओर रहती है जिसे वह अपना अंतिम लक्ष्य मान लेता है।
फलस्वरूप , विश्व में अनेक धर्मों की उत्पत्ति हुई जिनके रूप एवम् आचार संहितायें उनके
महान प्रवर्तकों के निजी अनुभवों पर आधरित रहे।
परंतु आज सहस्त्रों वर्ष के बाद भी जबकि सम्पूर्ण वातावरण परिवर्तित हो गया है एवम् जीवन
 क्रम में आमूल परिवर्तन आ गया है, उन्हीं रूपों को अपनाया जा रहा है।
धर्म का बाह्य रूप ही सांगोपांग रह गया और आंतरिक सत्व समाप्त हो गया है। इसका फल यह
 है कि धर्म -यान अत्यंत जीर्ण हो गया हैऔर यह कहना अनुचित
न होगाकि वर्तमान धर्म भूतकाल का केवल अवशिष्ट मात्र अथवा मृतकों की अस्थियों की
 भांति ही रह गया है। हमने वास्तव में सच्चे धर्म को कब्र में दफना दिया है।
हम धर्म के नाम पर तालियां बजाने के अलावा और कुछ नहीं करते हैं । धर्म की सही आत्मा
 खो चुकी है और उसके स्थान पर केवल औपचारिकता ही रह गई है।
अब केवल बाह्य रूप और कर्मकाण्ड ही हमारी द्रष्टि के सामने रह जाते हैं और हम उन्हें ही
अत्यधिक कट्टरता एवम् हठ द्वारा पकडे़ रहते हैं जिनमें सत्य (वास्तविकता )
का स्पर्श भी नहीं रहता ।
      (सत्य का उदय-मूल लेखक-राम चंद्र  - प्रथम अध्याय -- धर्म ----पृष्ठ -२ )

 इस प्रकार , सत्य (वास्तविकता ) में हमारा विश्वास घट कर प्राय:
 लुप्त सा हो गया है। यह केवल विभिन्न रूपों तथा आडम्बरों में ही विकृत
हो जाता है। क्रमश: इसका पतन धर्मांधता अथवा पक्षपात में जाता है जो दुर्भाग्यवश
आधुनिक धर्म का स्थायी लक्षण हो गया है । औपचारिकता के प्रति हमारा अंधविश्वास
हमें वास्तविकता के सम्बंध में अंधेरे में डाले रहता है और अज्ञात रूप से हम  अपने अंदर
 उन लोगों के प्रति घ्रणा बढ़ा लेते हैं जो दूसरे रूपों एवम् कर्मकाण्डों मैं विश्वास करते हैं ।
 इसी के फलस्वरूप विभिन्न धर्मों के अनुयायियों में विद्वेष एवम् कलह है ।

भारत ने यद्यपि राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त  कर ली है किंतु  आत्म-स्वातंत्र्य अथवा  अत्मा की
स्वातंत्र्ता की अभी कमी है । उदार  दृष्टि - कोण   एवम् स्वतंत्र चिंतन की योग्यता का अभाव
 इस में प्रमुख बाधा है । सम्पूर्ण वातावरण पक्षपात एवम् प्रतिद्वंद्विता से आप्लावित है। समाज
 और संस्कृति का सम्पूर्ण ढांचा उसी आधार पर स्थित है। साम्प्रदायिक विद्वेष हमारी सभ्यता
 के पतन का मूल कारण है।
आज भारत  में तीन हजार(३०००) से कम जातियाँ नहीं हैं और प्रत्येक की अपनी अलग इकाई
 है । प्रारम्भ में ये जातियाँ श्रम के वर्गीकरण को सुलझाने के  लिए श्रमिकों  एवम् शिल्पियों के
 विभिन्न संघों के रूप में संगठित की गईं थीं ।
 किंतु आज प्रत्येक संघ  अपने को शेष समाज से अलग कर लेने का प्रयत्न करता है
 और एक स्वतंत्र इकाई के रूप में रह कर दूसरों के प्रति घृणा  एवम् ईर्ष्या का भाव रखता है ।
 इस प्रकार सम्पूर्ण  समाज विघटन की ओर अग्रसर हो रहा है ।
 वह समय निकट ही है जब इस दुर्गुण  की शीघ्र ही  समाप्ति हो जायेगी ।
प्रकृति इस दोष को समाप्त करने के   लिए कार्यशील है ।

       (सत्य का उदय-मूल लेखक-राम चंद्र -  - प्रथम अध्याय -- धर्म ----पृष्ठ -३  )

काल चक्र से कोई बच  नहीं  सकता । जाति- विद्वेष के कोरे प्रचारकों  एवम् सहायकों को
 इसे चेतावनी के रूप में  लेना चाहिए । यदि वे समय रहते अपने को सुधार नहीं लेते तो वे उसके
 दु ष्परिणाम से  नहीं बच सकते ।   ईश्वर की इच्छा पूर्ण होकर रहेगी । 
 पक्षपात सबसे बड़ा दोष है ।     आध्यात्मिक जीवन लिए तो सबसे घातक विष है ।
 यह व्यक्ति को अपने तक ही सीमित कर देता है जिससे वह व्यापक  दृष्टि - कोण के सभी
 साधनों को खो बैठता है । यह संकीर्णता उत्पन्न करता है और जो लोग इससे चिपटे रहते हैं
 उनकी उन्नति एवम् विकास की सम्भावनायें विनिष्ट हो जाती हैं ।
 पक्षपात से दूसरों के प्रति घृणा उत्पन्न होती है और यह प्रच्छन्न रूप अपने झूठे  बड़प्पन की
 भावना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । यदि हम इस दोष  पालते हैं तो अहंकार की वर्तमान
जंजीर में एक और कड़ी जोड़ लेते हैं । फलत: हम सत्य से दूर हो जाते हैं ।
असीम की उपलब्धि तो इस प्रकार और भी असम्भव हो जाती है । धर्म के मूलाधार , विश्वप्रेम
के सर्वथा विलुप्त हो जाने पर वही धर्म जो सामान्य्ता ईश्वर और मनुष्य के
 बीच एक कड़ी माना जाता रहा है अब एक बाधा बन गया है । यदि हम किसी रूप अथवा
 क्रिया की असली महत्ता एवम् अंतिम पहुँच को समझे बिना उससे बांधे रहें तो यह कदाचित्
हमारी बहुत बड़ी भूल होगी ।
 ईश्वर किसी धर्म - विशेष  या सम्प्रदाय के बाड़े में नहीं मिलता ।
यह कतिपय रूप एवम् कर्मकाण्डों में ही सीमित नहीं है, न वह शास्त्रों के पठन मात्र में ही
खोजा जा सकता है ।
 उसे तो हमें अपने हृदय के अंत: स्थल में ही खोजना पड़ेगा ।

            ईश्वर के प्रति विभिन्न प्रकार की धारणायें हैं। लोग अपनी समझ और योग्यता के
अनुसार उसे विभिन्न प्रकार से देखते हैं।

                                (सत्य का उदय -मूल लेखक-राम चंद्र- - प्रथम अध्याय -- धर्म ----पृष्ठ -4 )

ईश्वर सम्बंधी सबसे व्यापक स्वीकृत धारणा शाश्वत शक्ति के रूप में है, किंतु दार्शनिक विचार
इससे भी आगे जाता है और निर्गुण ब्रह्म की कल्पना करता है जो हर प्रकार की विभिन्नताओं
एवम् विशेषताओं से परे है ।
वही सृष्टि का मूल कारण एवम् चरम आधार है।
वही समस्त बाह्य जगत का चरम क्रियाशील  केंद्र अथवा चरम आधार है।
वह गुण , चेतनता और गति के परे है।
उसी को परब्रह्म भी कहा जाता है ।
फिर , ईश्वर की धारणा चरम सत्ता रूप में भी की जाती है।
हम सृष्टि को उसकी समस्त विभिन्नताओं एवम् भेदों सहित देखते हैं और हमें इसके निर्माता
एवम् नियंता में विश्वास होने लगता है । उसको हम ईश्वर अथवा सगुण ब्रह्म कहते हैं ।
उसे हम निराकार शाश्वत सत्ता समझते हैं जो सर्व शक्तिमान , सर्व दृष्टा एवम् सभी सद्गुणों
से परिपूर्ण है।
वह संसार का असली कारण है और वही उसका पालन एवम् संहार करने वाला भी है ।
कब हम इस निम्न स्तरीय दृष्टिकोण से ईश्वर (धर्म के ईश्वर ) को देखते हैं तभी वह उपासना
की वस्तु हो जाता है और वही लगभग सभी धर्मों का अंतिम साध्य हो जाता है।
अभी ईश्वर की कल्पना निराकार पर कुछ गुणों का आरोपण करके की गई थी, किंतु जन-
साधारण के लिए यह कल्पना समझ सकना भी कठिन  है। इसलिए वे अपेक्षाकृत सरल
साधन की प्राप्ति के प्रयत्न स्वरूप ईश्वर के इससे भी स्थूलतर आकार की कल्पना करते हैं।

अत: कुछ लोग उसे सबसे ऊँचे आसमान पर आसीन मानते हैं जहाँ से वह सभी के लिए
न्याय एवम् दया वितरित करता रहता है । 
कुछ अन्य लोग उसे सब वस्तुओं में निहित सृष्टि का नियंत्रण  करने वाली एक शक्ति मानते हैं ।
                                                            
  (सत्य का उदय - मूल लेखक -राम चंद्र   - प्रथम अध्याय -- धर्म ----प्रष्ठ -5  )

          इस प्रकार क्रमश: हम लोग उस निरूप अथवा निराकार से हट कर किसी स्थूल अथवा साकार रूप की 
 ओर धीरे-धीरे बढ़ते चले जाते हैं । धर्म-ग्रंथों में इन दोनों धारणाओं , निराकार अथवा साकार के विषय में बहुत कुछ
कहा गया है, परन्तु  दोनों ही धारणायें, वास्तव में अत्यन्त भ्रामक हैं ।
वस्तुत: ईश्वर न तो निराकार है और न साकार , वरन् दोनों से परे है।
जो उसे साकार मानते हैं वे असीम को रूप और आकार में मानो सीमित करना चाहते हैं । परिणामत: उनमें
संकीर्णता उत्पन्न हो जाती है और वे सदा के लिए उन्हीं सीमाओं में बद्ध रहते हैं ।
यदि हम उसे निराकार मानते हैं तो भी हमारे मन में उसके सर्जक , नियंत्रक  और संहारक आदी विशेषणों
द्वारा सीमित किया हुआ बिंब ही उपस्थित होता है । यहाँ तक कि शक्ति या ऊर्जा के रूप में ईश्वर की परिकल्पना
भी एक सीमित अवधारणा है । हम और आगे बढ़कर शून्य (Non-entity or Zero) की धारणा करते हैं;
फिर भी हम एक प्रकार से सत्य से अभी दूर हैं ।
फिर वह है क्या  ? 
वाणी उसे व्यक्त करने में असफल है। 
केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि यदि हम उन दोनों कल्पनाओं से सचमुच दूर रहें तो कम से कम अपने
को ठीक दिशा की ओर  उन्मुख मान सकते हैं । जब तक हम धर्म की सीमाओं में आबद्ध रहते हैं , धर्म का ही ईश्वर
हमारी दृष्टि में रहता है और हम एक या दूसरे दृष्टिकोण में ही उलझे रहते हैं ।
आध्यात्मिकता की उच्चतम अवस्था तभी सम्भव है जब हम इनसे  परे जाते हैं ।

वस्तुत: धर्म  जहाँ समाप्त होता है वहीं से आध्यातमिकता प्रारम्भ होती है ।
मोक्ष -मार्ग पर मनुष्य की यात्रा की तैयारी के लिए धर्म केवल एक प्रारम्भिक अवस्था मात्र है ।

 
.... क्रमश: जारी  रहेगा... अगले सप्ताह इसी समय ,,,
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